पात्रे त्यागी गुणे रागी संविभागी च बन्धुषु।
शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा स वै पुरुष उच्यते॥१०१॥
शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा स वै पुरुष उच्यते॥१०१॥
जो उचित पात्र के लिए त्याग करता है, दूसरों के गुणों को स्वीकार करता है, अपने सुख-दुःख को बन्धु-बान्धव के साथ बाँटता है, शास्त्रों से ज्ञान ग्रहण करता है, युद्ध में वीरता का प्रदर्शन करता है, उसे ही सच्चे अर्थ में पुरुष कहा जाता है।
कोकिलानां स्वरो रूपं स्त्रीणां रूपं पतिव्रतम्।
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥१०२॥ पंचतंत्र
विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥१०२॥ पंचतंत्र
कोयल का सौन्दर्य उसकी मधुर स्वर है, स्त्री का सौन्दर्य पातिव्रत है, कुरूप व्यक्ति का सौन्दर्य विद्या है और तपस्वी का सौन्दर्य क्षमा है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेष च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥१०३॥ महाभारत
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥१०३॥ महाभारत
प्रवासी के लिए विद्या मित्र होता है, गृहस्थ के लिए पत्नी मित्र होती है, रोगग्रस्त के लिए औषधि मित्र होता है और मृतक के लिए धर्म मित्र होता है।
मूलं भुजंगैः शिखरं विहंगैः शाखां प्लवंगैः कुसुमानि भृंगैः।
आश्चर्यमेतत् खसुचन्दनस्य परोपकाराय सतां विभूतयः॥१०४॥
आश्चर्यमेतत् खसुचन्दनस्य परोपकाराय सतां विभूतयः॥१०४॥
चन्दन वृक्ष के जड़ में सर्प लिपटे रहते हैं, शिखर पर पक्षी विश्राम करते हैं शाखा पर वानर झूलते हैं और फूलों पर भ्रमर मँडराते हैं, अर्थात चन्दन वृक्ष सदैव दूसरों का कल्याण करता है। इसी प्रकार से सज्जन सदैव दूसरों का हित ही करते हैं।
न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचित् रिपुः।
अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रुपवस्तथा॥१०५॥
अर्थतस्तु निबध्यन्ते मित्राणि रुपवस्तथा॥१०५॥
न तो कोई किसी का मित्र ही होता है और न ही कोई किसी का शत्रु होता है, परिस्थियाँ ही व्यक्ति को मित्र अथवा शत्रु बनने को विवश करती हैं।
अज्ञः सुखं आराध्यः सुखतरं आराध्यते विशेषज्ञः।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति॥१०६॥
ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति॥१०६॥
अज्ञानी को को आसानी के साथ सिखाया तथा समझाया जा सकता है और उससे भी अधिक आसानी के साथ पूर्ण ज्ञान रखने वाले को सिखाया तथा समझाया जा सकता है किन्तु ज्ञानी होने का दम्भ रखने वाले अल्पज्ञानी को ब्रह्मा भी सिखा तथा समझा नहीं सकते।
अव्यकरणमधीतं भिन्न्द्रोण्या तरगिणीतरणम।
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतं॥१०७॥
भेषजमपथ्यसहितं त्रयमिदमकृतं वरं न कृतं॥१०७॥
व्याकरण के बिना अध्ययन करना, पेंदे में छेद वाले नाव से नदी पार करना और पथ्य के बिना औषधि का सेवन करना, ये तीन कार्य ऐसे हैं जिसे करने से न करना ही अच्छा है।
शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥१०८॥ हितोपदेश
साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने॥१०८॥ हितोपदेश
प्रत्येक पत्थर माणिक नहीं होता, प्रत्येक हाथी में मुक्ता नहीं होता, प्रत्येक स्थान में साधु नहीं होते और प्रत्येक वन में चन्दन वृक्ष नहीं होते। (अर्थात सद्गुण दुर्लभ होते हैं।)
गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः करी च सिंहस्य बलं न मूषकः॥१०९॥
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः करी च सिंहस्य बलं न मूषकः॥१०९॥
गुणी व्यक्ति ही दूसरे गुणी व्यक्ति के गुण का आकलन कर सकता है, निर्गुण नहीं। बलवान व्यक्ति ही दूसरे बलवान व्यक्ति के बल का आकलन कर सकता है, निर्बल नहीं। कोयल ही वसन्त का आकलन कर सकती है, कौआ नहीं। हाथी ही सिंह की शक्ति का आकलन कर सकता है, चूहा नहीं।
कन्या वरयते रूपं माता वित्तं पिता श्रुतम्।
बान्धवाः कुमिच्छिन्ति मिष्टान्नं चेतरे जनाः॥११०॥
कन्या अपने पति के रूपवान होने की इच्छा रखती है, कन्या की माता अपने जामाता के धनवान होने की इच्छा रखती है, कन्या का पिता अपने दामाद के बुद्धिमान होने की इच्छा रखता है, कन्या के भाई कन्या के पति के कुलीन होने की इच्छा रखते हैं और अन्य लोग केवल मिष्टान्न की इच्छा रखते हैं। (अर्थात एक ही व्यक्ति से-अलग अलग लोग अलग-अलग कामना रखते हैं।)
बान्धवाः कुमिच्छिन्ति मिष्टान्नं चेतरे जनाः॥११०॥
कन्या अपने पति के रूपवान होने की इच्छा रखती है, कन्या की माता अपने जामाता के धनवान होने की इच्छा रखती है, कन्या का पिता अपने दामाद के बुद्धिमान होने की इच्छा रखता है, कन्या के भाई कन्या के पति के कुलीन होने की इच्छा रखते हैं और अन्य लोग केवल मिष्टान्न की इच्छा रखते हैं। (अर्थात एक ही व्यक्ति से-अलग अलग लोग अलग-अलग कामना रखते हैं।)